काश। Kaash: Mahila Sashaktikaran Short Story in Hindi
काश (Kaash) एक एक छोटी कहानी (Short Story in Hindi) है जो महिला सशक्तिकरण (mahila sashaktikaran or nari sashaktikaran) की जरूरत को सही तरीके से चित्रित करती है और उन महिलाओं के प्रति हमारी अवधारणा (perception) को बदलने के लिए प्रेरित करती है जिन्हे हम गृहिणी या हाउसवाइफ (housewife) कहते है।
हम सभी जानते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Women’s Day) हर साल 8 मार्च को मनाया जाता है। यह वह दिन है जब हम अपने जीवन में महिलाओं के सशक्तिकरण (nari sashaktikaran or women empowerment) के लिए जश्न मनाते हैं और दुनिया में उनके योगदान को स्वीकार करते हैं।
हमारे पूर्व राष्ट्रपति श्री ए पी जे अब्दुल कलाम जी ने कहा है कि एक अच्छे राष्ट्र के निर्माण के लिए महिलाओं को सशक्त (Women Empowerment or nari sashaktikaran) बनाना बहुत आवश्यक है। जब महिलाएं सशक्त होती हैं, तो स्थिरता वाला समाज सुनिश्चित होता है।
महिलाओं का सशक्तिकरण (mahila sashaktikaran) इसलिए भी आवश्यक है क्योंकि उनके नैतिक मूल्य (Moral values) एक अच्छे परिवार, समाज और अंततः एक अच्छे राष्ट्र के विकास की ओर ले जाती है।
लेकिन क्या यह उचित है कि महिला सशक्तिकरण (mahila sashaktikaran) के दिन हम उनकी उपलब्धि, त्याग, सहनशक्ति को याद करे जबकी वो पूरे साल चुनौतियों, कठिनाइयों, घरेलू हिंसा (domestic violence), ऑनर किलिंग (honor killing) आदि का सामना करती रहे और यह हमारे समाज में साल दर साल जारी रहता है।
काश। Kaash: Mahila Sashaktikaran Short Story in Hindi
सुधा… जल्दी करो… देर हो रही है मुझे… ना जाने क्या करती रहती हो । तुम्हारा तो काम ही खत्म नहीं होता… सुदीप ने आवाज लगाई तो सुधा जल्दी-जल्दी लंच बॉक्स पैक कर किचन से लगभग दौड़ती हुई बाहर आई ।
सॉरी सुदीप… आज सुबह नींद ही नहीं खुली जल्दी, थोड़ा लेट हो गया ।
तुम्हारा तो रोज का है… सुदीप ने गुस्से में जवाब दिया और ऑफिस जाने के लिए निकल गया ।
सुधा बुझे मन से वही खड़ी सुदीप को जाते हुए देखती रही… काश सुदीप एक बार ऑफिस जाते हुए मुड़ कर देख ले लेकिन ऐसा हुआ नहीं । सुधा अपने मन को समझाते हुए अंदर आ गई और बच्चों के स्कूल जाने की तैयारियों में लग गई ।
बच्चों के जाने के बाद वह घर की साफ-सफाई और बाकी के काम करती थी । आज घर की सफाई करते-करते वह आईना साफ कर रही थी कि उसने अपने आपको देखा । ऐसा महसूस हुआ जैसे बरसों बाद आईना देख रही हो । कभी घंटों तक आईने के सामने बैठकर सिंगार करने वाली आज खुद को ही पहचान नहीं पाई ।
सूनी आंखें… जिसके नीचे काले घेरे हो गए हो गए हैं । रुखा चेहरा जिस पर ध्यान नहीं देने से आने वाली झुर्रियां उसे उम्र से अधिक बड़ा बताने लगी । उसके सुंदर घने काले लंबे बाल जिससे कभी सुधा को इतना प्यार था कि उसे घंटों संवारा करती और किसी को छूने नहीं देती । आज उनका इस तरह से बेतरतीब बंधा जूड़ा देखकर बहुत तकलीफ हुई ।
आज अपने आपको आईने में देखकर ऐसा महसूस हुआ कि जिसके लिए मैंने अपने आपको मिटा दिया उसके नजर में मेरी कोई अहमियत ही नहीं है ।
सुधा का मन अतीत के उन गलियारों में भटकने लगा जिसमें सुधा की हंसी, खिलखिलाहट, सहेलियों के साथ गप्पे मारना, उनके साथ घूमना, अपने पसंद के सारे काम करना जिसका उसे मन करता था ।
उसका सुंदर रूप जिसे देखकर दादी हमेशा कहती, तू तो चांद का टुकड़ा है लाडो… तुझे जो वर् कर ले जाएगा वह बड़ा ही सौभाग्यशाली होगा।
पढ़ लिख कर हमेशा अपना एक नाम, एक वजूद बनाने की चाह ना जाने कब और कहां खो गई इन जिम्मेदारियों के बीच । आज उसे ऐसा लग रहा था कि जैसे सुधा तो कब की मर चुकी है यह तो सिर्फ एक चलती-फिरती जिंदा लाश है। सब कुछ खो कर भी कुछ ना होने का काटा सा चुभने लगा ।
तभी फोन की कर्कश ध्वनी सुधा को वर्तमान में ले आई । उसने फोन में देखा सुदीप की फोटो उसमें चमक रही थी । सुंदर मुस्कान के साथ उसने उठा लिया और जैसे ही हेलो कहा… उधर से आवाज आई इतनी देर क्यों लगाती हो फोन उठाने में सुधा, क्या कर रही थी?
जी वो………………….
अच्छा सुनो… शाम को मेरे कुछ फ्रेंड आने वाले हैं तो उनके लिए भी डिनर बना लेना । और मैंने कुछ सामान भेजा है, उसे ले लेना ठीक है । इतना कह कर सुदीप ने फोन काट दिया ।
सुधा कुछ देर फोन को देखती रही… फिर तैयारियों में लग गई । बच्चों को जल्दी डिनर करा कर उसने रूम में भेज दिया और खुद भी तैयार होने चली गई ।
तैयार होकर जैसे ही आई कि बाकी के सारे काम कर लूं तभी दरवाजे की घंटी बजी । देखा तो सुदीप थे, सुधा को देखते ही बोले… तुम कहीं जा रही हो क्या?
सुधा… नहीं तो, आपने कहा था कि मेहमान आने वाले हैं डिनर के लिए इसलिए चेंज कर लिया ।
तुम्हें उनके साथ बैठना तो है नहीं फिर यह सब करने की क्या जरूरत थी? सुदीप कहते हुए रूम में चला गया । सुधा समझ ही नहीं पाई कि क्या कहें… बालों का जूड़ा बना, कमर में साड़ी का पल्लू लपेटकर फिर किचन में लग गई ।
थोड़ी देर बाद सारे गेस्ट भी आ गए । फिर सब का नाश्ता और औपचारिक मुलाकात के बाद सुधा डिनर की टेबल लगाने लगी ।
सभी खाने का आनंद ले रहे थे और गपशप कर रहे थे की ऑफिस में काम करने वाली लड़कियों की बात छिड़ गई। उनके कपड़े, उनके श्रृंगार और उनके चाल चलन का न जाने क्या-क्या चर्चा का विषय होने लगा ।
एक ने कहा लड़कियों को ऑफिस में काम ही नहीं देना चाहिए वह घर के काम ही करते ठीक लगती है । तभी सुदीप ने कहा सही कह रहे हो उन्हें जितना बांध कर रखो उतना ही समाज सही रहेगा , क्राइम कम होगा ।
मुझे तो पहले का ही रिवाज ठीक लगता है । घूंघट करके जब औरतें रहती थी, घरों से बाहर नहीं जाती थी और जब जाती भी थी तो किसी के साथ जाती थी । अब बाहर निकल कर कौन सा तीर मार लेती है ।
आज भी तो घर का सारा भार हम पुरुष ही उठाते हैं तो क्या जरूरत है यह सब महिला सशक्तिकरण (mahila sashaktikaran or nari sashaktikaran or women empowerment) का नाटक करने का । फिजूल का सबका दिमाग खराब कर रखा है ।
आज सुधा को सुदीप के विचारों को सुनकर ऐसा लग रहा था जैसे किसी ने जिंदा भट्टी में उसे झोंक दिया है । उसके अंदर जैसे ज्वालामुखी फटने लगा । वह अपने आप को रोक नहीं पाई क्योंकि बात सिर्फ उसके अपमान की नहीं थी। बात समस्त स्त्री जाति के सम्मान की थी ।
बड़े सुंदर विचार है तुम्हारे सुदीप और तुम्हारे इन मित्रों के भी । तुम लोगों को लगता है कि हम औरतें करती क्या है । काश तुम लोग यह समझ पाते कि औरत ईश्वर की सबसे खास रचना है ।
तुम लोगो को जरा सी चोट लग जाए या एक हड्डी टूट जाए तो इतना चिल्लाते हो । काश वह दर्द महसूस कर पाते जब हम एक बच्चे को जन्म देते हैं जो 20 हड्डियों के एक साथ टूटने के बराबर दर्द होता है ।
उस पर यह सुनने को मिलता है कि औलाद पैदा करके कोई महान काम नहीं किया । तुमने कभी उसे घर से निकाल देने की तो, कभी उसे तलाक देने की धमकी देते हो । और अगर इससे भी संतुष्टि नहीं मिलती तो उसके मां-बाप को बुलाकर उन्हें जलील करते हो।
लोगों को क्या लगता है कि औरत कोई खिलौना है, जिसे जब चाहा खेला और तोड़ कर फेंक दिया । अकेली औरत को देखकर तुम पुरुष उस पर दानव की तरह टूट पड़ते हो, हम तो ऐसा नहीं करती अकेले पुरुष को देखकर ।
तुम पुरुष कहीं भी अपनी पैंट खोलकर लघु-शंका करने के लिए खड़े हो जाते हो और दोष हम औरतों पर कि हम समाज को दूषित कर रही हैं।
अगर यह कह दे कि हमारा तन-मन हमारा है, इस पर हमारा पूरा अधिकार है । हम जिसे चाहे दे तो समाज और मर्यादा का उल्लंघन है । सिर्फ औरतें ही विवाह के समय दान में क्यों दी जाती हैं, मर्द क्यों नहीं?
क्योंकि मर्दों में दूसरे का घर बसाने की शक्ति ही नहीं है । अपनी कोख से बड़े-बड़े वीर, पीर ,पैगंबर जनती हैं । फिर भी यह पुरुष समाज कहता है औरत नरक का द्वार है । उसे जन्म से चुप रहना, सहना सिखाया जाता है ।
जहां उसने अपने सम्मान और रक्षा के लिए आवाज उठाई मार दी जाती है । अपने वात्सल्य और छाती से जीवन सींचती है और उसी छाती के कारण तुम जैसे लोगों की गंदी नजरों का शिकार होती है ।
उसे तार-तार कर, अपमानित कर सड़कों पर फेंक देते हो । जिससे प्रेम करती है, उस पर आंखें बंद कर विश्वास करती है । यही उसका गुण है लेकिन तुम जैसे लोग इसी का स्वांग रच कर उसे ठगते हो ।
काश कि तुम लोग समझ सकते कि औरत क्या है? काश औरतों को तुम लोगों की तरह छल करना आता तो आज इस तरह यहां बैठकर बातें नहीं बना रहे होते । तुम जैसे खोखले विचारों वाले लोगों के बीच खड़े होने में भी मुझे घुटन हो रही है ।
कहते हुए सुधा लॉन (Lawn) की खुली हवा में सांस लेने चल दी…
सुदीप और उसके मित्र वही सिर झुकाए शर्म से बैठे रहे । ऐसा लग रहा था जैसे आज उन्हें किसी ने आईना दिखा दिया और वह आईने में अपना चेहरा ही नहीं देख पा रहे हैं।
धन्यवाद!
यह कहानी काल्पनिक और लेखिका की अपनी सोच है। इस कहानी को चित्रित करने का उद्देश्य कुछ पुरुषों द्वारा गृहिणी के प्रति धारणाओं को इंगित करना है और यह आवश्यक नहीं है कि सभी पुरुषों की सोच समान हो।
इस कहानी के माध्यम से किसी की भावना को ठेस पहुंचाने का कोई इरादा नहीं है, बल्कि यह संदेश देने का प्रयास है कि किसी भी पेशे में महिलाओं के बारे में सोच और विचारों को बदलने और उन्हें समान अधिकार देने का का समय है। यदि ऐसा नहीं किया गया तो यह अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस (International Women’s Day) मनाने का व्यर्थ प्रयास है।
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