ड्रग्स। Drugs : सोशल मीडिया की लत
ड्रग्स (Drugs) एक भावनात्मक हिंदी कहानी है जिसमे सोशल मीडिया की लत (Social Media Addiction) का मानव संबंधों और भावनाओं पर प्रभाव को दर्शाया गया है। इस कहानी की कल्पना और लेखन (swarachit kahani) आंचल बृजेश मौर्य ने किया है जो दर्शाती है कि किस प्रकार सोशल मीडिया की आदत ने युवाओं को भावनात्मक रूप से असंवेदनशील और आत्मकेंद्रित बना दिया है।
ड्रग्स। Drugs : सोशल मीडिया की लत । Social media addiction
अरे बड़ी भाभी को बुलाओ कहां है? भाभी इधर आइए ना पहले फोटो ले लेते हैं। भाभी आप इधर पैरों के पास फूल डालते हुए बैठ जाइए। हां ठीक है, भैया एक पूरी फैमिली का फोटो एक साथ ले लीजिए। रोहन तुम अपने फोन से फोटो ले लो, ज्यादा अच्छी आती है। ठीक है भैया।
दोपहर का खाना खाकर सोचा थोड़ी देर आराम कर लेता हूं। आज हवा जरा ठंडी थी तो बाहर निकलने का मन नहीं कर रहा था। और उस पर अनी (मेरी बेटी अनामिका) गरमा – गरम कस्टर्ड रख गई, तो कंबल से निकलने का मन ही नहीं किया।
कंबल में पैर डालकर गर्म – गर्म कस्टर्ड के मजे लेकर जैसे ही सोने वाला था, कि फोन की घंटी बज गई। सोने का मन हो और उसमें कोई बाधा आ जाए तो ना चाहते हुए भी गुस्सा आ ही जाता है। लेकिन लगातार फोन बजे जा रहा था, तो मैं भी मन मार कर फोन उठाया। देखा तो बड़े भाई साहब के बेटे रोहित का फोन था। जैसे ही फोन उठाया उधर से आवाज आई।
चाचा जी प्रणाम, मैं रोहित बोल रहा हूं, पिताजी नहीं रहे चाचा जी।
रोहित यह क्या बोल रहे हो बेटा कब हुआ यह? अभी कल ही तो बात हुई थी भाई साहब से, तब तो ठीक थे।
हां चाचा जी आज सुबह ही पिताजी को हार्ट अटैक हुआ और हम लोग उन्हें अस्पताल लेकर गए थे। अभी थोड़ी देर पहले ही डॉक्टर ने बताया कि पिताजी नहीं रहे।
ठीक है चाचा जी रखता हूं और भी सबको खबर देनी है… फोन कट गया। मैं फोन को देखता रह गया। अनी के आने की आहट ने मुझमे वापस चेतना भरी। मैंने भारी गले और आंखों में आंसू लिए अनी को बताया। बेटा भाईसाहब नहीं रहे।
अनी ने कहा हाँ पापा अभी भाई का फोन आया था। तभी मैं आपके पास भागती हुई आई। भाई साहब के इस तरह अचानक चले जाने से ऐसा लगा ,जैसे संसार में कोई रही नहीं गया। मां पिताजी तो बहुत पहले ही चले गए। लेकिन भाई साहब ने कभी उनकी कमी नहीं महसूस होने दी।
समय और परिवार की जिम्मेदारियां ने हम लोगों में दूरियां जरूर बढ़ा दी, लेकिन दिलों की दूरियां कभी नहीं बढी। मैं और भाई साहब रोज घंटे फोन पर बातें करते थे। जब तक बात ना कर ले ऐसा लगता था कि कुछ अधूरा सा है, और आज यह खबर ने तो जैसे सब कुछ छीन लिया।
अनी ने मुझे संभाला और मुझे हिम्मत दी भाई साहब के अंतिम दर्शन के लिए। किसी तरह हिम्मत कर उनके घर पहुंचा। वहां अंतिम यात्रा की तैयारी शुरू हो चुकी थी। बड़ी मुश्किल से हिम्मत करके उनके दर्शन किए।
मेरे तो प्राण ही सूख रहे थे, रास्ते भर यही सोचता रहा कि मेरा यह हाल है, तो बच्चों का क्या हाल हो रहा होगा? भाई साहब हमेशा बच्चों की तारीफ किया करते कि, बच्चे उनके बगैर एक दिन भी नहीं रह पाते। यही सोच रहा था कि उन्हें कैसे हिम्मत दूंगा? जिसके सर से पिता का साया उठ गया उन्हें किस तरह से हिम्मत मिलेगी?
लेकिन यहां कुछ और ही नजारा देखने को मिला। सभी अपने-अपने फोन पर व्यस्त थे। सबको फोटो लेकर स्टेटस (Status) लगाना था। किसके स्टेटस (Status) पर कितने कमेंट (Comment) और व्यू (view) आते हैं, यह दिखाना था।
कोई फोटो के साथ गाना और इमोजी (Emoji) लग रहा था, तो कोई रील (Reel) बना रहा था। किसी को सोशल मीडिया से फुर्सत नहीं थी। भाई साहब के जाने से जितना दुख नहीं हुआ, उससे ज्यादा दुख सोशल मीडिया नाम की इस ड्रग्स (drugs) से हुआ। जिसने आजकल के जनरेशन को इस कदर भावना विहीन कर दिया है, कि समझ नहीं आता कि यह किसे अपनी तकलीफ अपना दुख और अपनी खुशियां बांटते हैं जो यथार्थ में है ही नहीं।
कोई कहता है हमारे इतने फॉलोवर्स (Followers) है, लेकिन किसी गली से गुजर जाए तो कोई पहचानने वाला भी नहीं मिलेगा। कोई दुर्घटना हो गई तो लोग अपना-अपना फोन निकाल कर वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर डाल देंगे, जैसे यह उनका परम कर्तव्य है, लेकिन मदद के लिए आगे नहीं आएंगे।
इससे अच्छा तो पहले का समय ही था, की सूचना भले ही देर से मिले लेकिन मदद पहले मिलती थी। किसी नशीले पदार्थ की लत लग जाए तो उसे दवा और देखभाल से छुड़ाया जा सकता है, लेकिन इस सोशल मीडिया नामक नशे से इस नई पीढ़ी को कैसे छुड़ाया जाए जिसका सीधे मस्तिष्क पर वार होता है।
जो सही, गलत, फायदा, नुकसान सोचने की क्षमता ही खत्म कर देता है। जाति, धर्म, वेश-भूषा, रंग, रूप, गरीब, अमीर जिसका भेदभाव मिटाने के लिए पूर्वजों ने क्या-क्या नहीं किया। इसे मिटाने के लिए कितनी पीढ़ियां इसकी भेट चढ़ गई। उसे सोशल मीडिया के माध्यम से इस कदर भड़का दिया जाता है जिसे शांत करने के लिए प्रशासन को आगे आना पड़ता है और न जाने क्या-क्या उसकी भेंट चढ़ जाता है।
पता नहीं इससे हमारा समाज तरक्की कर रहा है, या और गहरी खाई में जा रहा है? जिस वृक्ष के बीज से नन्हे-नन्हे पौधे उगे, जिसके छाया ने उन्हें शीतलता दी, उन्हें हर आंधी-तूफान से बचकर खड़े होने लायक बनाया। जो नन्हे-नन्हे पौधे अभी तक ठीक से अपनी जड़ें भी नहीं जमा पाए, उन्हें उस वृक्ष के गिर जाने का कोई दुख नहीं?
क्या इस पीढ़ी की सारी भावनाएं फोन पर ही होती है? भाई साहब का शव अभी घर में ही है, और घर की बहुएं और बेटी इस बहस में व्यस्त है, कि दो दिन बाद शांति पाठ में किस कलर के कपड़े पहनना है। कोई कहता है, कि हल्का नीला रंग ठीक है, तो कोई सफेद रंग के पक्ष में है।
पूरा जीवन जिनके लिए मेहनत की, जिसके लिए हमेशा मुझे कहते रहे, रघु तेरी तो दो बेटियां है वंश कौन चलाएगा? इस बारे में सोच। मेरे तो चार बेटे हैं, वही बेटे आज पिता के चले जाने पर इस कदर दिखावे में व्यस्त है।
भाई साहब की अंतिम यात्रा में भी जगह-जगह खूब फोटो खींची गई और सोशल मीडिया पर डाली गई। भाई साहब के जाने का दुख तो वैसे ही बहुत था। यह सब देखकर और मन खराब हो गया, इसलिए अंतिम संस्कार के बाद में वहीं से अपने घर चला आया।
सोशल मीडिया के माध्यम से जो सीधे लोगों के मस्तिष्क में डाला जा रहा है, इसका क्या परिणाम होगा इसके बारे में किसी ने सोचा है। मैं ये नहीं कहता कि यह गलत है, या इसका इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। तेज रफ्तार भरी जिंदगी में इसकी आवश्यकता है। लेकिन इसका उपयोग कम, दुरुपयोग ज्यादा हो रहा है।
इसी सोशल मीडिया के माध्यम से कितने लोगों को नया जीवन मिला। कितनी महिलाओं को इस तरह के प्लेटफार्म से घर बैठे आत्मनिर्भर बनने का अवसर मिला।कोरोना जैसी महामारी को हम कैसे भूल सकते हैं, इसी सोशल मीडिया से ही सभी अपनों से जुड़े रहे। परंतु किसी भी चीज की अति अच्छी नहीं होती, फिर उसकी कोई अहमियत नहीं रह जाती। बस उसका दुरुपयोग ही होता है।
हमारी आने वाली पीढ़ी इस का सही इस्तेमाल करके तरक्की करती है या इसके दुरुपयोग से अपनी सोचने समझने की शक्ति और अपनी भावनाएं खोकर एक मशीनी जिंदगी जीती है, यह तो समय के गर्त में छुपा हुआ है? लेकिन इस ड्रग्स (durgs) के बारे में गंभीरता से सोचने की जरूरत है।
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ये तो कोरोना से भी ज्यादा घातक और लाईलाज बीमारी है जिसकी गिरफ्त मे देश का वर्तमान और भविष्य दोनों आ चुका है।